खुदा हाफ़िज़

Ø  दिलीप सिमियन

कई साल पहले, 1990 के दशक के मध्य में मैं एम्सटर्डम में था और एक दोस्त के घर रात्रि भोजन करने के बाद एक टैक्सी से लौट रहा था. टैक्सी में बैठने के बाद पता चला कि टैक्सी ड्राइवर एक भारतीय प्रवासी था. या मुझे ऐसा लगा. मैंने उससे इस बारे में पूछा तो उसने बताया कि उसका जन्म सूरीनाम में हुआ था. वह हिंदी में बात कर रहा था. उसका लहजा काफी लयात्मक था. टैक्सी आगे बढ़ती रही, और हमारी बातचीत जारी रही. मैंने उसे बताया कि मैं क्या करता हूं, और उससे पूछा कि उसके पूर्वज कहां के थे और क्या वह वहां गया है. पता चला वह मूलतः बिहार का है लेकिन वह वहां कभी गया नहीं. कुछ देर में मेरी मंजिल आ गई, मैंने उसे किराया अदा किया और टैक्सी से उतर गया. उसने एक बार मेरी तरफ देखा और बोला, “अच्छा लगा आपसे मिलकर. खुदा हाफ़िज़.” उसकी नरम आवाज़ में मिठास थी. यह आखिरी बार था जब किसी ने दिल से निकले इन लफ्जों के साथ मुझे विदा कहा था. मैंने भी उसे विदा कहा. बेशक मैंने इसके बाद फिर उसे कभी नहीं देखा.

Amsterdam, 1996

1972 की सर्दियों में मैं कुछ महीने लंदन में था. नक्सल आंदोलन से अपने मोहभंग के बाद जब में काफी परेशान था तब मेरे अभिभावकों ने मुझे वहां भेज दिया था. उस समय मेरे अंकल ऑस्ट्रिया में भारत के राजदूत थे. मैंने वियना में उनसे और आंटी से मिलने की योजना बनाई और 30 दिसंबर को पेरिस पहुंचा. वहां एक रात अपने एक दोस्त के घर रुका और दूसरे दिन ओरिएंट एक्सप्रेस पर सवार हो गया. उन दिनों इस ट्रेन से पेरिस से इंस्तांबुल के सफर की काफी चर्चा होती थी. मेरे पास अनारक्षित श्रेणी का साधारण टिकट था और सामान बहुत कम ही था. मुझे उम्मीद थी कि बैठने के लिए एक सीट तो मिल ही जाएगी मगर नहीं मिली और मुझे कॉरीडोर में ही फर्श पर बैठकर यात्रा करनी पड़ी. दिसंबर में मध्य यूरोप जबरदस्त ठंड की चपेट में होता है. हड्डी कंपाने वाली उस ठंड से बचने के लिए मैंने रेल के डिब्बे के दरवाजे के नीचे हवा निकलने के लिए बने छेद के पास बैठकर सफर किया ताकि अपने अंगों को थोड़ी गरमी दे सकूं. 

अगली सुबह ट्रेन जब म्यूनिख से काफी आगे निकल गई तब जाकर खाली हुई एक सीट मुझे मिल पाई. पूरी रात मैं कुछ खा-पी नहीं सका था और बुरी तरह थका हुआ था. मेरे जो थोड़े-से पैसे थे उन्हें मैं बचाकर रखना चाहता था ताकि वियना में भारतीय दूतावास तक जाने के लिए मेरे पास टैक्सी भाड़े लायक पैसे हों. मेरे सामने की सीट पर बैठे करीब 30-35 साल के एक शख्स ने मुस्कराकर मेरा अभिवादन किया. बाद में पता चला कि वह एक ईरानी डॉक्टर है और वह भी वियना जा रहा है. वह फ्रेंच बोलता था इसलिए उससे बहुत टूटी-फूटी बातचीत हो पाई. मुझे लगा कि उसका नाम शायद मोहसिन था. हम दोपहर में वियना पहुंचे और हमने एक-दूसरे को गुडबाइ कहा. मैं अपना टिकट और पासपोर्ट जांच कराने के लिए स्टेशन के निकास द्वार की ओर बढ़ गया और कतार में खड़ा हो गया. ठंड और भूख के मारे मेरे घुटने जवाब दे रहे थे. तभी अचानक मोहसिन मेरे बगल में आकर खड़ा हो गया, उसके हाथ में पेपर नैपकिन में लिपटी कोई चीज थी. वह गरम सैंडविच था, जिसे उसने चुपचाप मुस्कराते हुए मेरी ओर बढ़ा दिया और भीड़ में गुम हो गया. मैं उसे ठीक से शुक्रिया भी नहीं कह पाया. लेकिन सैंडविच की उस समय जितनी जरूरत थी उतनी शायद मैंने फिर कभी महसूस नहीं की होगी.

1979 में मैं अपने कुछ अज़ीज़ दोस्तों से मिलने ऑस्ट्रेलिया गया और वहां से उन लोगों के साथ फ़िजी घूमने गया. यह मेरी एक होस्टेस, फ़िजी की एक भारतीय महिला का देश था. हम वहां की राजधानी सुवा में ठहरे. एक दिन हम उनके एक पुराने मित्र से मिलने गए, जो फ़िजी के एक प्रमुख द्वीप विति लेवू के एक गांव के निवासी थे. यह सफर हमने एक बस और फिर एक मोटरबोट से पूरी की. मोटरबोट गरान वाले इलाके में जलमार्ग से होकर गुजरा. कीचड़ भरे किनारों पर उगी झाड़ियों का चंदोवा जैसा उस जलमार्ग के ऊपर टंगा था. गांव में उनके मित्र ने हमारा स्वागत किया. उनका नाम ओरिया था, जो कभी फ़िजी प्रशासन के अधिकारी थे. ऊंची और चौड़ी कद-काठी वाले ओरिया काफी हंसमुख व्यक्ति थे. हमने पूरे गांव का चक्कर लगाया. गांव में सारे घर लकड़ी से बने थे और लकड़ी के खंभों पर खड़े थे ताकि जल जमाव से बच सकें. हमने ओरिया के पड़ोसियों से भी दुआ-सलाम की. दोपहर बाद सुवा लौटने का समय हो गया, लेकिन वहां मुझे इतना अच्छा लग रहा था कि मैंने थोड़ी देर और रुकने का अनुरोध किया तो हर कोई कहने लगा, क्यों न तुम रात यहीं रहो और कल लौट जाना.  

Rewa River, Fiji, 1979

यही हुआ. मेरे दोस्त नाव पर सवार होकर लौट गए, मैं ओरिया के साथ टहलता रहा. शाम हुई तो हम लकड़ी से बनी उनकी झोपड़ी के एक बड़े-से कमरे में आकर बैठ गए. 13-15 साल के कुछ बच्चे भी आकर फर्श पर बैठ गए. इसके बाद स्वागत की रस्म शुरू हो गई. प्लास्टिक की एक बड़ी बाल्टी में पीने का पानी भरकर रख दिया गया और उसमें भूरे रंग का पाउडर घोल दिया गया. यह फ़िजी के द्वीपवासियों के प्रिय पौधे कावा की सूखी जड़ का पाउडर था. इस घोल को निरंतर मिलाया जा रहा था. नारियल का एक आधा खोपड़ा सबके आगे से घुमाया गया जिसमें हर आदमी उस शर्बत को भरता था, तब वहां बैठे लोग ताली बजाते थे. हर कोई उस घोल को तब तक पीता गया जब तक कि बाल्टी खाली नहीं हो गई. इस बीच बच्चों ने लोकगीत गाना शुरू कर दिया था. एक बच्चा गिटार बजा रहा था. यह सब करीब घंटे भर चला. तब तक मैं कावा के असर से नीम नशे में सिर हिलाने लगा था. कावा में अल्कोहल नहीं होता और नींद ला देता है. मैं वहीं चटाई पर पसर गया और गहरी नींद में चला गया.

मेरी नींद सुबह में ही तब खुली जब खिड़की से आती सूरज की किरण मेरी आंखों पर पड़ी. पास के चर्च से समवेत गायन की मधुर आवाजें आ रही थीं. वह चर्च भी लकड़ी के खंभों पर बना था. पूरा गायन दिव्य था. इसके अलावा दूसरी कोई आवाज सुनाई दे रही थी तो वह चिड़ियों के गाने और पेड़ों के बीच से सरसराती हुई गुजरती हवा की आवाजें थीं. मैं इतनी गहरी नींद में सोया था कि मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि सुबह हो गई है. ताजे स्वादिष्ट फलों का नाश्ता करते हुए मैंने मेजबान से बातचीत की और फिर अगली बस पकड़ने के लिए विदा हो गया. इसके बाद ओरिया से मैं फिर कभी नहीं मिला लेकिन मैं बिना किसी अतिशयोक्ति के कह सकता हूं कि उनके साथ बीते पल मेरे जीवन के सबसे हसीन पलों में शुमार हैं.

Orea in his village, Fiji, 1979

लेकिन अब मैं जिस अनुभव का जिक्र करने जा रहा हूं वह उतना सुखद नहीं था. 1982 में मैं दिल्ली के रामजस कॉलेज में नौकरी कर रहा था और एक आंदोलन में शामिल हो गया था. यह आंदोलन कॉलेज के माली सीताराम के साथ हुई नाइंसाफी के खिलाफ हुआ था, जिसमें मैं उसकी खातिर नौ दिन की भूख हड़ताल पर बैठा था. वह कहानी लंबी है, लेकिन 16 फरवरी को मैं स्कूटर पर अकेले काम पर जा रहा था, कि कुदसिया बाग के पास सुनसान जगह पर एक कार अचानक मेरे स्कूटर के सामने आकर रुक गई. हाथों में लोहे की छड़ लिये चार लोग कार से निकले. मैंने तुरंत स्कूटर को मोड़ने की कोशिश की मगर फिसलकर गिर पड़ा. क्षण भर में ही वे चारों मेरे ऊपर टूट पड़े, मेरी टांगों और चेहरे पर छड़ों से वार किए और एक मिनट से भी कम समय में भाग खड़े हुए क्योंकि एक गाड़ी बगल से गुजरी. मेरी टांग तोड़ दी गई थी, चेहरा बुरी तरह घायल कर दिया गया था, कई दांत टूट गए थे. मैं लहूलुहान पड़ा था जब स्कूटर पर एक पुलिसवाला मेरे पास आकर रुका, मुझे देखकर एक पैदल यात्री से उसने पूछा कि क्या कोई दुर्घटना हुई है. उस आदमी ने बताया कि मुझ पर हमला किया गया है. इसके बाद दोनों गायब हो गए.

मैं कई मिनटों तक सड़क पर पड़ा रहा, कि एक फिएट कार मेरे पास आकर रुकी. कार में अधेड़ उम्र के पति-पत्नी सवार थे. पुरुष ने बाहर निकलकर बड़ी चिंता के साथ मुझसे बात करने की कोशिश की लेकिन मैं कुछ बोल पाने लायक भी नहीं था. उसने मुझे उठाकर कार की पिछली सीट पर लिटाया और रिज के ऊपर बारा हिंदूराव अस्पताल लेकर आ गया. मैंने सुना, पति-पत्नी डॉक्टरों को बता रहे थे कि वे मुझे इसी हाल में उठाकर लाए हैं. मुझे इमरजेंसी रूम में ले जाया गया. इसके बाद मैंने उन दोनों को कभी नहीं देखा और न उनका कोई परिचय हासिल कर पाया. लेकिन उनकी दयालुता को कभी भूल नहीं पाऊंगा और न उसकी कोई भरपाई कर पाऊंगा.

Belfast, Shankill, 2000

अंतिम प्रसंग एक ही व्यक्ति से दो बार हुई मुलाकातों का है. मारी फिट्ज़डफ से पहली बार मैं 1990 में हेलसिंकी में यूरोपीय परमाणु निःशस्त्रीकरण सम्मेलन में मिला था. यह सम्मेलन हेलसिंकी तथा ताल्लिन्न, एस्टोनिया में हुआ था. इसमें एक सत्र का विषय धार्मिक हिंसा से संबंधित था. इसमें मैंने एक आयरिश महिला को कैथलिकों और प्रोटेस्टेंटों के बीच हिंसा पर बोलते हुए सुना था. तब अचानक मुझे एहसास हुआ था कि मैं यह नहीं समझ पा रहा हूं कि वह महिला किस पक्ष की थीं. अहिंसा और शांति के लिए वे भावुकतापूर्ण आग्रह कर रही थीं, ‘अपनी’ आस्था के लिए नहीं. उनके व्याख्यान में पक्षधरता का कोई संकेत तक नहीं था. सत्र समाप्त होने के बाद मैं उनके पास गया था और हमने वहां पार्क में कुछ देर साथ टहलते हुए बात की थी. वह विचारों का मेल था. 

सम्मेलन खत्म होने के बाद मैं यह कल्पना भी नहीं कर रहा था कि उनसे फिर मुलाक़ात होगी. लेकिन 2000 में मैं विश्व शांति के सवाल पर एक सेमिनार में भाग लेने उत्तरी आयरलैंड के डेर्री शहर गया. इस सम्मेलन की मेजबान मारी फिट्ज़डफ ही थीं. उस शहर में ही नफरत का माहौल साफ महसूस किया जा सकता था. सड़कों और बस्तियों को एक-दूसरे से अलग रखने के लिए इस्पात की दीवारें खड़ी की गई थीं; हिंसक प्रतिरोध को व्यक्त करने के लिए विशालकाय म्यूरल बनाए गए थे. यहां तक कि फुटपाथों को भी सियासी रंगों में रंग दिया गया है.

Bobby Sands mural, Northern Ireland, 2000

बहरहाल, थोड़े दिनों का मेरा पड़ाव आयरिश लोगों की दोस्ती और गर्मजोशी के कारण खुशनुमा रहा. यह मैंने अपनी मेजबान को भी बताया. हमारे पास निजी बातें करने का वक़्त नहीं था, लेकिन सम्मेलन खत्म होने के बाद मारी मुझे बेलफास्ट के लिए विदा करने बस अड्डे तक आईं. बस में बैठने से पहले मैं उनसे वह बात कहने से खुद को न रोक पाया, जो पूरी यात्रा के दौरान मेरे मन में घुमड़ रही थी. मैंने उनसे कहा कि आप आयरिश लोग बेहद शानदार, उदार और संगीतमय हैं. मेरी प्रशंसा के साथ एक अनकहा सवाल भी जुड़ा था. इस पर उनकी सहज प्रतिक्रिया ने भारत के बारे में बहुत कुछ कह दिया. मारी का जवाब था— ‘दिलीप, हम दूसरे अजनबियों से प्रेम करते हैं, न कि हमारे अपने अजनबियों से.’ उस समय मुझे मारी को गले लगा लेने का मन हुआ— ‘हमारे अपने अजनबी’, इन तीन शब्दों में पूरा इतिहास और त्रासदी सिमटी है. महाभारत, कर्बला, वाघा, फिलिस्तीन… यह कहानी आज तक जारी है. मारी फिट्ज़डफ से मैं फिर न मिल सका लेकिन मैं उनके ये तीन शब्द कभी नहीं भूल पाउंगा. 

In Belfast, 2000

कभी-कभी, किसी से हम केवल एक बार या चलते-फिरते मिलते हैं. लेकिन वे अपनी गहरी गर्मजोशी से आपको भीतर तक छू लेते हैं. ऐसी मुलाकातों में ऐसा कुछ होता है जो बहुत गहरा, अथाह जैसा होता है, और वे यादगार बन जाती हैं. आपको ऐसा कुछ मिल जाता है, जो आपके ज़हन में पहले से मौजूद होता है. एक हल्का इशारा, हताशा के माहौल में मदद का एक हाथ, पृथ्वी के एक दूसरे कोने के एक दूरस्थ गांव में बीती एक रात… एक गरम सैंडविच… और सारी अजनबीयत गायब हो जाती है.

और किसी के महज तीन शब्द

शुक्रिया मारी, ओरिया, और मोहसिन; और वो अधेड़ पति-पत्नी, जिन्होंने 16 फरवरी 1982 को मुझे सड़क से उठाकर अस्पताल पहुंचाया. सूरीनाम के मेरे उस अनाम टैक्सी ड्राइवर को फिर से सलाम!

खुदा हाफिज़ मेरे प्यारे दोस्तो! खुदा आपको सलामत रखे.

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Stand Up, Say No

Khuda Hafiz

The Crisis of Ideology

Satyagraha: An answer to modern nihilism

A Political Man: Memories of Ranajit Guha

An Open Letter to the world on the Bangladesh crisis of 1971

Achintya Barua remembers Ranajit Guha

Remembering Rabindra

Ajay Singh: Fiji – A Love Story