विचारधारा का संकट

 जनमत कभी विचारधारा विहीन नहीं हो सकता लेकिन हमारे अंदर दार्शनिक साहस न हो तो हम खुद को नष्ट कर लेंगे

दिलीप सिमियन

This essay first appeared in Outlook magazine on April 11, under the title The Crisis of Ideology

क्या हम उस युग में पहुंच चुके हैं जिसमें विचारधारा का अंत हो चुका है? जी नहीं, उलटे हम उसमें आकंठ डूबे हुए हैं. ‘उत्तर-सत्य’ मुहावरा बोलने की हमारी आदत पर विचारधारा के प्रभाव का ही एक उदाहरण है. इसका क्या अर्थ है? विचारधारा शब्द का अर्थ हम कुछ ऐतिहासिक घटनाओं को याद करके, उन घटनाओं में विचारधारा की मौजूदगी को तलाश कर, और उन्हें जिस तरह से समझा जाता है उससे जान सकते हैं.

लेकिन हमें सावधान रहने की भी जरूरत है. दुनिया भर में शासक जो अपनी छवियां पेश कर रहे हैं या खुद को सही साबित करने की जो कोशिशें कर रहे हैं उनका असर फीका पड़ता जा रहा है. उनकी घोषणाओं की विश्वसनीयता घट रही है. इसे हम विचारधारा का अंतःस्फोट कह सकते हैं, क्योंकि इनके विचार ही इनके पतन का कारण बने. सोवियत संघ, ब्रेक्सिट, सिओनवाद (इजरायली राज्य का मूल सिद्धांत), और ‘मागा’ (मेक अमेरिका ग्रेट अगेन) जैसे नाम इसी की मिसाल हैं. तमाम सत्ता प्रतिष्ठान खुद से ही पैदा किए गए संकट से जूझ रहे हैं. इसका अर्थ यह नहीं है कि विचारधारा का अंत हो गया है. इससे यह जाहिर होता है कि राजनीतिक बिखराव का सामना होते ही शासक नफरत और सैन्यवादी प्रचार को बढ़ावा दे रहे हैं. हिंसा का जश्न मनाने वाली विचारधाराएं ऐसी लापरवाही कर सकती हैं जो बेहद खतरनाक हो सकती हैं. ऐसे विचारों को मैं अर्थहीन (इसे अंग्रेजी में ‘निहिलिज़्म कहा जाता है जिसका अनुवाद है शून्यवाद लेकिन मैं इसे अर्थहीन कहता हूं. ऐसी विचारधाराओं के अनुसार भाषा, मानव आदर्श, और जीवन अर्थहीन हैं; इनका व्यवहारिक नतीजा सामाजिक विघटन और विनाश है.

बदलाव के मोड़

20 जून 1791 को फ्रांस के शाही परिवार ने पेरिस से भागकर जर्मनी की सीमा की ओर जाने की कोशिश की थी. उन्हें लोगों ने पहचान लिया और वे अपनी मंजिल के लगभग करीब पहुंचे ही थे कि वारेन्नेस गांव में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि उनकी घोडागाड़ी रानी के माल-असबाब के बोझ के कारण काफी धीरे-धीरे चल रही थी. उनकी गिरफ्तारी के कारण सीमित राजशाही की भी संभावना खत्म हो गई और जनतंत्र के समर्थकों की ताकत बढ़ गई. शाही परिवार को अंततः मौत के घाट उतार दिया गया था.

7 नवंबर 1917 को बोल्शेविक पार्टी ने मजदूरों के नाम पर रूस की सत्ता पर कब्जा किया. इसके ठीक बाद 4.4 करोड़ रूसियों ने संविधानसभा के लिए वोट दिया, जिसका रूसी लोकतंत्र के पक्षधर लंबे समय से इंतजार कर रहे थे. लेकिन चुनाव के नतीजे ने लेनिन की पार्टी को दबदबे वाली स्थिति नहीं प्रदान की. 5 जनवरी 1918 को जब संविधानसभा की बैठक हुई तो उसके सदस्यों ने लेनिन की यह मांग ठुकरा दी कि वे अपने अधिकार सीमित करें. 6 जनवरी को सभा को जबरन भंग कर दिया गया. इस तरह, रूसी इतिहास के संतुलित दिशा में मुड़ने की संभावनाएं समाप्त हो गईं. एक खूनी गृहयुद्ध फूट पड़ा. पूरा मामला रूसी कामगारों और रूसी जनता के वैध प्रतिनिधित्व को लेकर वैचारिक संघर्ष का था.

27 अक्तूबर 1962 इतिहास का सबसे खतरनाक दिन था. मिसाइल संकट के दौरान अमेरिकी नौसेना ने क्यूबा की घेराबंदी की. सोवियत पोतों का एक बेड़ा परमाणु टॉर्पिडो से लैस पनडुब्बी के साथ चल पड़ा था. कैरीबियन में इसका चालक दल मॉस्को से संपर्क नहीं बना पाया. अमेरिकी डेस्ट्रायर ने जब पनडुब्बी पर दबाव बनाना शुरू किया तो उसके चालक दल ने अपने टोरपीडो को हमले के लिए तैयार कर लिया लेकिन इसके लिए उस पर सवार सभी तीन सीनियर अफसरों की मंजूरी चाहिए थी. अकेले वासिली आर्खिपोव ने ही मंजूरी देने से मना किया. संकट टला, मगर किसी उच्च स्तरीय कूटनीति के कारण नहीं. दुनिया को परमाणु युद्ध से न तो केनेडी ने बचाया और न ख्रुश्चेव ने, बल्कि सोवियत नौसेना के एक अकेले कमांडर ने बचाया.

दिसंबर 2000 में अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के जो नतीजे फ्लॉरिडा में आए उनमें सुप्रीम कोर्ट ने हस्तक्षेप किया और राष्ट्रपति पद जॉर्ज बुश को सौंप दिया जबकि पूरे संकेत यही थे कि अल गोर जीत सकते थे. इस फैसले के जो नतीजे हुए उनमें इराक की दो लड़ाइयां भी शामिल हैं. इनके अलावा अमेरिकी लोकतंत्र भी दूसरी तरह से प्रभावित हुआ. अब सवाल यह खड़ा होता है कि आखिर अमेरिका में राष्ट्रपति कौन चुनता है?

इन सभी घटनाओं का ताल्लुक जबरदस्त नतीजे देने वाले फैसलों से है. फिर भी, एक सोच वह भी है, जो इतिहास की अपरिहार्य गति में विश्वास रखता है. वैसे, अपरिहार्य तो कुछ भी नहीं होता. और ऐसे मत की सूनामी भी आ गई है, जो इतिहास की गलतियों को ‘सुधारना’ और दुखद यादों को मिटाना चाहता है. इनमें पहली चिंतन प्रक्रिया अकादमिक है, तो दूसरी राजनीतिक सपनों की फैक्टरी की देन है. ये विचारधारात्मक सोच के उदाहरण हैं. और इनका ताल्लुक समय के बारे में हमारी समझ से है.

अंतहीन स्थगन

‘आइडियोलॉजी’ (विचारधारा) शब्द का आविष्कार 1790 के दशक में फ्रेंच शिक्षाविदों ने विचारों के स्रोत के बारे में शोध करते हुए किया था. बाद में इस अर्थ को बदल दिया गया. नेपोलियन ने ‘आइडियोलॉजी’ शब्द का प्रयोग उन सिद्धांतों के पर्यायवाची शब्द के रूप में किया, जो ‘गरम दिमाग वाले युवाओं और जोशीले खब्तियों’ पर हावी थे. आज हम ‘आइडियोलॉजी’ (विचारधारा) शब्द का प्रयोग राजनीतिक दलों के कार्यक्रमों-नीतियों के लिए करते हैं.

तीन बातें हैं जो हमें हमारी विषयवस्तु से जोड़ती हैं— समय, भाषा, और अंतरात्मा. हम जो कुछ सोचते, बोलते और करते हैं उनसे ये तीनों बातें जुड़ती हैं. ये मुद्दे जटिल हैं लेकिन उन्हें उपेक्षित नहीं किया जा सकता. जॉर्ज ऑरवेल का उपन्यास ‘1984’ इनकी शानदार पहचान कराता है. इसका पहला अध्याय ही यह ज्ञान देता है— ‘जो अतीत को अपने नियंत्रण में रखता है, भविष्य उसके नियंत्रण में रहता है; जो वर्तमान पर नियंत्रण रखता है, वह अतीत को काबू में रखता है’. इसका अर्थ यह हुआ कि वर्तमान पर नियंत्रण जनता के सोच में उलटफेर करने की कुंजी है. नीत्शे ने इसे दूसरी तरह से कहा है. अपने जर्मन साथियों पर उन्होंने यह टिप्पणी की : “वे बीते हुए कल के भी कल वाले दिन में, आने वाले कल के आगे के कल में जीते हैं, लेकिन उनका कोई आज नहीं है.”

यह कुल मिलाकर इस वैचारिक भाव को जन्म देता है कि हमारा कोई वर्तमान नहीं है. हम वर्तमान से नफरत करते हैं; हम एक काल्पनिक अतीत के सपने देखते हैं; और एक चमकते भविष्य की कामना करते हैं. भविष्य वह समय है जिसमें अतीत का संशोधन किया जाएगा. इस तरह हम खुद को स्थायी तौर पर एक प्रतीक्षालय में बैठे पाते हैं. हम समय बिताते हैं, जीवन ‘आनंद की आनंदहींन खोज’ बनकर रह जाता है. (यह मुहावरा लियो स्ट्रॉस की 1953 की किताब ‘नैचुरल राइट ऐंड हिस्टरी’ के अध्याय 5 से लिया गया है).

चमकते भविष्य से संबंधित सिद्धांतों को गतिशील कहा जा सकता है. वैसे, यथास्थितिवादी सिद्धांत भी हैं, जैसे बाजार का कट्टरतावाद (पूंजीवाद को एक कुदरती शक्ति मानना); वैधानिक विचारधारा (कानून और न्याय का समीकरण); और शाश्वत प्रभुत्व, जैसा कि पैक्स ब्रिटानिका (ब्रिटिश साम्राज्य का वैचारिक ध्वज), या ‘इतिहास का अंत’. सोच का ऐसा आग्रह गंभीर रूप से भ्रामक है लेकिन उन्हें समझने की शायद ही कोशिश की जाती है.

भाषा के खेल

विचारधारा दरअसल लफ़्फ़ाज़ी का एक रूप है. विवेक से प्रेम जबकि दर्शन को जन्म देता है, कुशल वाक-चातुर्य से प्रेम लफ़्फ़ाज़ी को जन्म देता है. उसे सच की कोई परवाह नहीं होती, बल्कि वह सच्चाई और वस्तुनिष्ठता की अवधारणा तक का विरोध करता है. इसलिए, ‘1984’ के पहले अध्याय में हम ‘न्यूस्पीक’ (सरकार नियंत्रित भाषा), ‘डबलस्पीक’ (द्विअर्थी भाषा), ‘डबलथिंक’ (परस्पर विरोधी बातों को सच मानना) और ‘रियलिटी कंट्रोल’ (सच्चाई के बोध पर सत्ता का नियंत्रण) जैसे मुहावरे और ‘युद्ध ही शांति है’, ‘गुलामी ही आज़ादी है’, ‘अज्ञानता ही ताकत है’ जैसे नारे पाते हैं. ये सब भाषा को नष्ट करने के उदाहरण हैं.

इन दिनों एक शब्द काफी फैशन में है— ‘नरेटिव’, यानी वृत्तांत या आख्यान. घटनाओं का जिक्र करने के लिए कई शब्द हैं— विवरण, संस्करण, रिपोर्ट, खबर. लेकिन हम इनका शायद ही प्रयोग करते हैं. हर बात एक ‘नरेटिव’ है, जिसमें कथात्मकता भी है, और उसकी एक जगह भी है. लेकिन जब घटनाओं और उनके विवरण में कोई अंतर नहीं है तब उनके अलग-अलग संस्करणों में हम भेद कैसे कर पाएंगे? तब क्या सब कुछ हमारी सुविधा के मुताबिक सच या झूठ नहीं बन जाएगा? तब न्याय का क्या होगा? क्या वह पांसा फेंकने के खेल जैसा नहीं हो जाएगा? क्या हम यही चाहते हैं? अगर हम सभी भेदों की लीपापोती ‘नरेटिव’ शब्द से कर देंगे तब हम तपती पृथ्वी (ग्लोबल वार्मिंग), युद्ध, या किसी विवादास्पद मसले के बारे में कैसे बात करेंगे?

सभी विचारधाराएं ‘नरेटिव’ होती हैं, इसलिए लोग जब स्पष्ट स्वार्थवश अपना जुड़ाव बदलते हैं तब जाहिर है कि सच उनके लिए कोई मतलब नहीं रखता. लेकिन क्या यह हम सबके लिए भी कोई मतलब नहीं रखता? या हमने यह कबूल कर लिया है कि लक्ष्य ही साधन को उचित ठहराता है, कि कुछ लोग अगर दूसरों पर पूरी तरह से राज करने के लिए निरंतर झूठ बोलते हैं तो इसमें कोई बुराई नहीं है?

ऑरवेल ने बताया है कि तानाशाही व्यवस्था के सेवक किस तरह उपेक्षित वास्तविकता का ख्याल रखते हुए वस्तुनिष्ठ वास्तविकता को नकारते हैं : “डबलथिंक शब्द का प्रयोग करने के लिए परस्पर विरोधी बातों को सच मानना जरूरी है क्योंकि, इस शब्द का प्रयोग करते हुए व्यक्ति यह स्वीकार करता है कि वह वास्तविकता से छेड़छाड़ कर रहा है; परस्पर विरोधी बातों को फिर से सच मानते हुए व्यक्ति इस ज्ञान को नष्ट करता है; और यह अनंत काल तक चलता रहता है, और झूठ के बूते व्यक्ति सच से हमेशा एक छलांग आगे रहता है.”

वास्तविकता एक बार जब गल्प में बदल दी जाती है तब हम पूर्णतः नियंत्रित दुनिया में पहुंच जाते हैं. तानाशाहों का लक्ष्य होता है सच की जगह राष्ट्रवादी, वर्गवादी, संप्रदायवादी और जातिवादी ‘भावना’ को स्थापित करना. सच्चाई की स्वायत्तता नष्ट की जाती है और बातचीत चीख-चिल्लाहट में बदल जाती है. तब अंतहीन लड़ाई के सिवा कुछ भी हमारे हाथ नहीं लगता.

शाश्वत प्रभुसत्ता

प्राचीन महाकाव्यों में न्याय की खोज, जीवन की त्रासदियों, और अंततः अच्छाई की जीत के आश्वासन के वर्णन मिलते हैं. लेकिन अच्छाई को विज्ञान परिभाषित नहीं कर सकता. अच्छाई के साथ कुछ आध्यात्मिक तत्व जुड़ा होता है, चाहे हम ईश्वर में विश्वास करें या नहीं. और चूंकि सत्ता को यह प्रदर्शित करना पड़ता है कि वह अच्छा है, इसलिए सत्ता और धर्मशास्त्र के बीच एक प्रकार का संबंध होता है.

लेकिन बहु-आस्था वाले समाजों में क्या होता है? दर्शनशास्त्र में इस मुद्दे को धार्मिक-राजनीतिक प्रश्न बताया गया है : समाज व्यवस्था को दैवी निर्देशों से संचालित होना चाहिए या मनुष्य के स्वतंत्र विवेक से? इसका निर्णय कैसे करें? अगर पहली बात को मानें तब सवाल उठेगा कि ईश्वर का प्रतिनिधि कौन है? अगर दूसरी बात को मानें तब सवाल उठेगा कि सोचने और बोलने की आज़ादी के बिना हम न्याय पर विमर्श कैसे करेंगे? इस बात पर ज़ोर देना कि बहुसंख्यकों की आस्था ही अंतिम सत्य है, दरअसल यह कहने के समान ही है कि जिसकी लाठी उसकी भैंस, यानी गृहयुद्ध का मसाला! शालीन उपाय इस बात को कबूल करना है कि न्याय और सद्गुण सभी संस्कृतियों में व्याप्त होते हैं; और एक जिम्मेदार राजनीति-तंत्र उनके बीच शांतिपूर्ण संवाद कायम करने की कोशिश करेगा. गांधीजी इसी की कोशिश कर रहे थे.

पिछली दो सदियों से, न्याय और अच्छाई की प्रभुसत्ता को उलटकर शाश्वत सत्ता की यातनादायी कल्पना में बदल दिया गया है. शाश्वतता का यह मानवीकरण एक छलावा है. कुछ लोग और कुछ दल यह सोचते हैं कि वे राष्ट्र या सर्वहारा, या जनता आदि के नाम पर हमेशा के लिए राज करने आए हैं. लेकिन इस ब्रह्मांड का सृष्टिकर्ता राष्ट्रों और दलों की फिक्र नहीं करता, इसलिए राष्ट्रभक्ति (देश प्रेम अलग बात है) और दल-भक्ति नास्तिकता के नये रूप हैं. ये विचारधाराएं हैं.

जहां मन भयमुक्त हो

प्राचीन दार्शनिक अंतरात्मा को आत्मा में बैठा न्यायाधीश, दैवत्व की चिनगारी बताते हैं. लेकिन अंतरात्मा आत्मघाती भी हो सकती है, और विचारधारात्मक आसक्ति इस प्रवृत्ति को जन्म देती है. जुलिएन बेंडा ने अपनी किताब ‘ट्रीज़न ऑफ द इंटेलेक्चुअल्स’ (1927) में लिखा है : “हमारा दौर राजनीतिक नफरतों के बौद्धिक संघटन का दौर है… मानवीय नैतिकता के इतिहास में इसका इसी कारण से संज्ञान में लिया जा सकता है.“ वे 1920 के दशकों में अति-राष्ट्रवादी समूहों के आगे संतुलनवादी विचारों के आत्मसमर्पण का जिक्र कर रहे थे.

बेकाबू अहंकार बुराई का एक स्रोत है. इसका उल्लेख भगवदगीता, और दोस्तोवस्की के लेखन में मिलता है, जो मानते थे कि सत्ता की इच्छा बुराई का स्रोत है. विचारधारा अच्छाई और बुराई को महत्वहीन बना देती है; और उनमें अंतर करने की हमारी क्षमता को कमजोर करती है. हमारे लिए इसका एक उदाहरण है अहिंसा के प्रश्न पर नैतिक तनाव का उभरना, जिसके परस्पर विपरीत ध्रुवों का प्रतिनिधित्व महात्मा गांधी और वी.डी. सावरकर करते थे.

विचारधारा संवाद को खामोश कर देती है और उपहास संवाद की जगह ले लेता है. यह हमारे नियंत्रण में रहने के बजाय यह हमें अपने वश में कर लेता है. यह हमें इस भ्रम में डाल देता है कि हमारे पास पूरा ज्ञान है, और इस तरह यह सोचने-विचारने की हमारी क्षमता को नष्ट कर देता है. विचारधारा से दूरी रखने का अर्थ स्थायी तटस्थता नहीं है बल्कि स्थायी सजगता है.

हम किताबी इतिहास को तो संशोधित कर सकते हैं लेकिन इतिहास को सुधार नहीं सकते. एटम बम के आविष्कार को हम रद्द नहीं कर सकते, लुई-16 और उसकी रानी की हत्या से हुए नुकसान को रद्द नहीं कर सकते, हिटलरशाही द्वारा किए गए यूरोपीय यहूदियों के नरसंहार के लिए फ़िलस्तीनियों को सजा नहीं दे सकते, या मुगलों से अनिश्चित काल तक लड़ते नहीं रह सकते. मृत लोगों की गलतियों के लिए हम जीवित लोगों को सजा नहीं दे सकते. हम अपनी आस्था या सिद्धांत के ‘अंतिम विजय’ के सपने नहीं देखते रह सकते. अंतिम समाधान कभी अंतिम नहीं होते.

रवींद्रनाथ ठाकुर ने 1910 में जो कविता ‘चित्तो जेथा भयशून्यो…’ लिखी थी वही प्रोपगंडा मशीन का जवाब है. जनमत कभी विचारधारा विहीन नहीं हो सकता लेकिन हमारे अंदर दार्शनिक साहस न हो तो हम खुद को नष्ट कर लेंगे. एक यहूदी मुहावरा कहता है कि सत्य कभी मरता नहीं, लेकिन उसे भिखारी बनकर जीने के लिए मजबूर किया जाता है. आइए, हम इस मुरझाते मगर मरने से इनकार करते इस पौधे पर थोड़ा पानी छिड़कें.

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