गांधी का समुद्री वर्तुल

Ø  दिलीप सिमियन

 ‘’अपने क्षेत्र की विशिष्टता का आग्रह हमारे जीवन का एक अभिशाप है. हम चाहते हैं कि हमारा क्षेत्र फैल कर भारत की सीमा के साथ मिल जाए और अंततः वह इस पृथ्वी की सीमा तक फैल जाए. और ऐसा नहीं हुआ तो यह नष्ट हो जाएगा.“ — महात्मा गांधी, सितंबर 1947

“सत्य कभी मरता नहीं, लेकिन उसे भिखारी की तरह जीने को मजबूर किया जाता है.” — एक यहूदी मुहावरा

प्रस्तावना

महात्मा गांधी का पूरा जीवन ईश्वर, सत्य, और अहिंसा को समर्पित था. वे इन्हें अलग-अलग खांचों में बंटा हुआ नहीं देखते थे बल्कि मनुष्य के जीवन के ताने-बाने के रूप में देखते थे. सत्य की खोज को समर्पित जीवन को एक दार्शनिक का जीवन ही माना जा सकता है. उन्होंने सामाजिक और राजनीतिक सुधारों के जो प्रयास किए उन्हें उनके गहन चिंतन-मनन वाले चरित्र से अलग नहीं किया जा सकता है. गांधी सामान्य जन के सद्गुणों से अपने लिए ताकत हासिल करते थे. वे आम जनों के आदर्श प्रतीकों, उनके आख्यानों, उनके कवियों की भाषा में उनसे संवाद करते थे; और ये राजनीतिक नेता नहीं बल्कि सामान्य जन ही हैं जिन्होंने उनको महात्मा माना है. इसके साथ मनुष्य की गरिमा को लेकर उनमें जो गहरा बोध था वह उन्हें स्थितप्रज्ञ बनाता था, उनकी आत्मा की धीरता का आधार था.

गांधी एक ज्ञानी व्यक्ति थे. इस लेख में मैं उनकी विवेकशीलता को समझने की कोशिश करूंगा. मेरा यह प्रयास काफी हद तक दूसरों की विद्वता पर आधारित है मगर इसमें हुई गलतियां सिर्फ मेरी हैं.

गांधी में अन्याय और सामाजिक बुराइयों से लड़ने का बहुत शक्तिशाली भावावेग था. उन्हें यह भी दिखता था कि हर व्यक्ति की अंतरात्मा में अच्छाई और बुराई के बीच संघर्ष चलता रहता है, जो देशों और समुदायों के बीच चलने वाले संघर्ष से अलग होता है. हमारा आज का यह दौर ‘राजनीतिक नफ़रतों की बौद्धिक खेती का दौर’ है, लेकिन गांधी इस तरह की ‘बौद्धिक खेती’ के बिलकुल खिलाफ खड़े थे. राजनीति को अगर ‘दोस्त-दुश्मन वाले रिश्ते’ के रूप में परिभाषित किया जाता है, तो गांधी इसे दोस्ती और संवाद पर आधारित रिश्ते के रूप में परिभाषित करते थे. अगर राजनीति की परिभाषा छल-कपट के रूप में की जाती है, तो गांधी जीवन के दूसरे दायरों के मुक़ाबले राजनीति में सच्चे आचरण पर कोई कम ज़ोर नहीं देते थे. मेकियावली, हॉब्स, फ्रेंच जेकोबिनवाद, कार्ल श्मिट्ट, और लेनिन समेत पश्चिम के तमाम राजनीतिक चिंतकों की पूरी परंपरा यह मानती है कि राज्यतंत्र मूलतः हिंसा पर आधारित होता है; लेकिन गांधी मानते थे कि ऐसे विचार और ऐसे राज्यतंत्र अंततः नष्ट हो जाएंगे.    

गांधी के विचार में नैतिकता, धर्मशास्त्र, और राजनीति के तत्व मिश्रित थे. वे जीवन को आत्मा के भौतिक निर्वासन के रूप में नहीं देखते थे; बल्कि लोगों की सेवा करने के एक अवसर के रूप में देखते थे. उनके बारे में कहा जा सकता है कि वे अपनी आत्मा उन लोगों में पाते थे जिन्हें इतिहास की बदकिस्मतियां भुगतनी पड़ी थीं. इसलिए, 1917 में बड़ी कोशिशों के बाद चंपारण के भोले-भाले किसानों से, जिन्होंने उनका स्वागत किसी वर्षों पुराने मित्र की तरह किया, पहली मुलाक़ात के बारे में वे यह कह सके कि “यह कोई अतिशयोक्ति नहीं बल्कि एक सच है कि किसानों के साथ उस मुलाक़ात में मेरा ईश्वर, अहिंसा, और सत्य से आमना-सामना हुआ था”: (‘सत्य के मेरे प्रयोग’, खंड 5, अध्याय 14 से).

यहां ये चार बातें मुझे चिंतित करती हैं : सांस्कृतिक विविधता वाले समाज में उपनिवेशवाद विरोधी रणनीति की समस्या; धर्म या राष्ट्र की संकीर्णताओं के प्रदूषण से मुक्त सच के प्रति प्रतिबद्धता; बुराई की अस्पष्ट प्रकृति और एक कृपालु ईश्वर की अवधारणा के साथ उसकी असंगति; और अपनी अंतरात्मा के खिलाफ जाने की मनुष्य की क्षमता.

अच्छाई की संप्रभुता

सितंबर 1947 में, कलकत्ता में सांप्रदायिक भाईचारे के लिए किए गए अपने प्रसिद्ध उपवास के दौरान गांधी ने यह महसूस किया था : “अच्छाई अपने बूते अपना अस्तित्व कायम रखती है, बुराई ऐसा नहीं कर सकती. यह एक परजीवी के समान है, जो अच्छाई के अंदर और उसके इर्दगिर्द ही अपना अस्तित्व बनाए रख सकती है. अच्छाई जब सहारा देना बंद कर देती है तब यह खुद-ब-खुद मर जाती है.”

यह नैतिकता के दर्शन की गंभीर परिकल्पना है. इसे हम ‘हिंद स्वराज’ में की गई उनकी इस टिप्पणी से जोड़ सकते हैं : “प्रेम की ताकत सत्य या आत्मा की ताकत जैसी ही होती है. यह हर कदम पर काम करती है, इसके प्रमाण मिलते हैं. यह ताकत न रही तो ब्रह्मांड ही लुप्त हो जाएगा.” इतिहास के लिए उनके मन में बहुत सम्मान नहीं था क्योंकि इतिहास कलह और बिगाड़ की कहानी है; बल्कि वे जिए गए समय को वास्तविक मैत्री की वैधता दिलाना चाहते थे जिसके बिना समाज बहुत पहले खत्म हो गया होता.

प्लेटो के दर्शन में अच्छाई का सबसे उपयुक्त प्रतीक है सूरज. उसे हम सीधी आंखों से नहीं देख सकते, लेकिन सूरज के कारण हम चीजों को देख सकते हैं, और वह फर्क करने की शक्ति भी प्रदान करता है. सूरज के प्रकाश के बिना हम दुनिया की विविधता की कल्पना नहीं कर सकते. अच्छाई की शांत झलक चिंतन से पहले मिल जाती है. वैसे, बाइबिल की ‘प्रस्तावना’ में यह ईश्वर ही हैं जो कहते हैं—‘प्रकाश होने दो!’, और वे इसे शुभ के रूप में देखते हैं. और यह बात ईश्वर द्वारा रची गई सभी चीजों के लिए दोहराई जाती है. अच्छाई की दृष्टि ईश्वर की दृष्टि है, और यह उसके द्वारा दुनिया की रचना के बाद आती है.  

इसलिए, यहूदी-ईसाई परंपरा में अच्छाई को लेखन की प्रक्रिया में दर्ज किया गया है; और यह ईश्वर की इच्छा के सापेक्ष है जिसने ब्रह्मांड की रचना की है. प्लेटोवादी परंपरा में ब्रह्मांड को शाश्वत माना गया है, और यह अच्छाई का प्रतीक है. अच्छाई को समझने के लिए देखने और सुनने की क्षमता काफी है.

स्वस्फूर्त अच्छाई के बारे में गांधी की अंतर्दृष्टि गहरी आस्था के साथ व्यक्त की गई है, जिस गहरी आस्था के साथ उन्होंने बुराई को एक ऐसा परजीवी बताया है जो अच्छाई को ग्रास बनाकर जीती है. मैं नहीं जानता कि उनमें यह आस्था कैसे बनी; लेकिन दूसरे लोगों के भी ऐसे ही विचार थे. पैगंबरवादी परंपरा में भी बुराई को एक वंचना, एक अभाव या अच्छाई की हानि के रूप में देखा जाता है, न कि एक स्वतंत्र अस्तित्व के रूप में. ऐसी ही टिप्पणी 1963 में हान्ना आरेंड ने की थी, उन्होंने लिखा था कि बुराई में कोई गहराई नहीं होती; वह केवल अति है. गहराई केवल अच्छाई में होती है, लेकिन मानवीय बुराई “पूरी दुनिया को सिर्फ इसलिए बरबाद कर सकती है क्योंकि यह सतह पर फैलते फफूंद की तरह फैलती है” (‘द ज्यूइश राइटिंग्स’, 471). लेकिन यह सच है कि प्रारंभिक अब्राहमवादी परंपरा में कुछ ईसाई समुदाय यह मानते थे कि बुराई की अपनी स्वायत्त हैसियत होती है, और वह ईश्वर से स्थायी संघर्ष की स्थिति में रहती है.

अच्छाई और बुराई के बारे में इन विरोधी विचारों के बीच क्या कोई बाधा होनी ही चाहिए? नहीं, क्योंकि पैगंबरवादी परंपराएं यह भी कहती हैं कि यह दुनिया अच्छी है. सभी आध्यात्मिक परंपराएं, चाहे वे धार्मिक हों या नहीं हों, प्रकाश का सम्मान करती हैं : पैगंबर वे हैं जिन्हें अच्छाई के प्रकाश की झलक मिल जाती है. इसके अलावा, अहंकार, अत्याचार, और सत्ता हासिल करने की जिद को तमाम सदियों में बुराई की जड़ के रूप में देखा गया. समस्या तब खड़ी होती है जब किसी मतवाद का आंख मूंद कर पालन करने की मांग की जाती है. इसलिए, 1936 में पत्रकारों के साथ एक बातचीत में गांधी ने कहा था : “किसी दैवी इलहाम को कबूल करने के लिए मैं अपने विवेक को नहीं त्याग सकता. सबसे अहम बात यह है कि ‘शब्द मार डालते हैं, भावना जीवन देती है’. लेकिन आप मुझे गलत मत समझिए. मैं आस्था पर भी विश्वास करता हूं, उन बातों पर जिनमें तर्क का कोई स्थान नहीं होता, जैसे ईश्वर का अस्तित्व.” (कलेक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गांधी {सीडब्लूएमजी} खंड 64, पेज 71)

‘भावना जीवन देती है’, बाइबिल की यह उक्ति आंखें खोलने वाली है, क्योंकि यह बुराई पर विजय की संभावना की घोषणा करती है. बुराई, और बुराई करने वाले में हमेशा से अंतर रहा है; इसलिए हमारे लिए खुद को सुधारने का अवसर हमेशा मौजूद रहता है. गांधी पवित्र भावना और आंतरिक आवाज़ या अंतरात्मा में, जो कि हम सबके अंदर है, कोई अंतर नहीं मानते थे. इसलिए वे हृदय के जरिए मस्तिष्क तक पहुंचने को इतना महत्व देते थे.

अंतरात्मा और बुद्धि, दोनों को न छूने से नैतिक बिखराव का खतरा पैदा होता है. जब ‘राष्ट्र’ को ईश्वर का दर्जा दे दिया जाता है और वह तथाकथित चुनिंदा जनों की अंधी आस्था का प्रतीक बन जाता है तब यह हमें आध्यात्मिक भेदभाव की ओर धकेल देता है. जब धर्मशास्त्र को धार्मिक कट्टरता में बदल दिया जाता है, आस्थावानों को राजनीतिक लाभ के लिए सैनिकों के रूप में इस्तेमाल किया जाता है; तब हम ईश्वर के नाम पर हिंसा के कगार पर पहुंच जाते हैं. आप पूछेंगे कि इन सबका हमारे विषय से क्या संबंध है? तीन बातें हैं :

एक : किसी राजनीतिक व्यवस्था में, आस्था की एकरूपता क्या वांछनीय, या संभव है?

दो : क्या राष्ट्रभक्ति और धर्म में मेल संभव है? या यह एक तरह की नास्तिकता है?

तीन : क्या राजनीतिक नेता ईश्वर की ओर से बोलने का दावा कर सकते हैं?

नागरिक धर्म और धार्मिक-राजनीतिक समस्या

धार्मिक/राजनीतिक पहेली यह है कि हम दैवी मार्गदर्शन से संचालित हों या स्वतंत्र मानवीय विवेक से? इस समस्या को इस तरह सरलता के साथ व्यक्त किया जाता है : अगर हम दैवी विवेक से संचालित होते हैं तब हमें यह स्वीकार करना ही होगा कि सीधे ईश्वर से कोई मार्गदर्शन नहीं मिलता. गांधी का कहना था कि पवित्र पाठ दो छन्नों से छ्नने के बाद हम तक पहुंचते हैं; पहला छन्ना पैगंबर हैं, और दूसरा छन्ना उनके शिष्य हैं. इसलिए हमें दैवी संदेश की विभिन्न व्याख्याओं के बीच अंतर को समझने के लिए अपने विवेक पर ही भरोसा करना पड़ेगा.

अगर हम केवल मानवीय विवेक पर भरोसा करते हैं तब हमें अच्छाई के बारे में संवाद चलाना होगा. यह हम किस तरह करेंगे? मोंटेस्कु ने इस मसले को यह कहकर टाल दिया था कि धर्म बनाम नास्तिकता का मुद्दा धर्म की उपयोगिता वाले मुद्दे से कम महत्वपूर्ण है. जन भावावेशों को नियंत्रित करने के लिए धर्म जरूरी है. इसी विचार की विवेचना रूसो ने अपने ग्रंथ ‘द सोशल कंट्रैक्ट’ में की है. इस ग्रंथ में एक अध्याय नागरिक धर्म विषय के बारे में भी है, जिसमें वे कहते हैं कि कानून बनाने वालों को अपनी सिफ़ारिशें ईश्वर के मुख से कहलवानी चाहिए क्योंकि लोग तभी प्रायः उन कानूनों पर विश्वास करते हैं. यह राजनीति द्वारा धर्म के अंगीकरण की दिशा में कदम है.

हाल में मैं समकालीन दार्शनिक विलियम डेस्मण्ड के लेखन से परिचित हुआ, जो दर्शन के साथ धर्म,  भावातीत ज्ञान के साथ अनुभवजन्य ज्ञान, विश्लेषण के साथ अंतर्ज्ञान, और व्यक्तिगत मनन-चिंतन के साथ संवाद के संबंध को समझने के लिए उन सबके ‘बीच’ में स्थित वाली अवधारणा का इस्तेमाल करते हैं. प्लेटो ने मनुष्य को न तो देवता माना और न पशु, बल्कि इन दोनों के बीच का कोई जीव माना; दर्शन के बारे में भी ऐसा ही कुछ कहा जा सकता है. मेरे विचार से, यह गांधी को समझने का सबसे अच्छा तरीका है :  वे आस्थाओं की विविधता को स्वीकार करते थे; और उस रास्ते से स्वराज हासिल करने की कोशिश कर रहे थे जिसमें संघर्ष की संभावना को कम किया जा सकता था. धर्म और राजनीति को जोड़ने वाला सूत्र सार्वजनिक कार्य की नैतिकता का संदर्भ बनता था. धर्म नैतिकता और विवेक का स्रोत था; राजनीति सामाजिक तथा राजनीतिक ज़िम्मेदारी का क्षेत्र था. ‘रामराज्य’ क्या है, यह भी उन्हें बिलकुल स्पष्ट था:

“मैं हजारवीं बार भी यही दोहराऊंगा कि रामनाम ईश्वर के अनेक नामों में से ही एक नाम है. एक ही  प्रार्थनासभा में कुरान की आयतें और ज़ेन्द अवेस्ता के पद भी गाए जाते हैं. सच्चे मुसलमानों ने रामनाम के कीर्तन को कभी बुरा नहीं माना…. रामनाम कोई बेमानी रट नहीं है. मेरे और करोड़ों हिंदुओं के लिए यह सर्वव्यापी परमात्मा को राम के परिचित नाम से पुकारने का एक तरीका है. राम के साथ जुड़ा जो ‘नाम’ है वह उसका सबसे महत्वपूर्ण भाग है. इसका अर्थ वह ‘राम’ है, जो इतिहास का राम नहीं है… जहां तक ‘रामराज्य’ शब्द के इस्तेमाल का सवाल है, मैं इसका अर्थ कई बार बता चुका हूं. तब इसके इस्तेमाल से किसी को क्यों दुख होना चाहिए? यह एक सुविधाजनक और अर्थपूर्ण शब्द है जिसका पूरा अर्थ कोई और शब्द करोड़ों लोगों को समझा नहीं सकता. जब मैं… मुख्यतः मुसलमान भाइयों की सभा में मैं इसे ‘खुदाई राज’ बोलता हूं, जबकि ईसाइयों की सभा में मैं इसके लिए ‘किंग्डम ऑफ गॉड’ शब्द का प्रयोग करता हूं. कोई और तरीका मेरे लिए खुद को दबाने और पाखंड करने वाला होगा.” (सीडब्लूएमजी, खंड 85, पेज 130).     

एकरूपी नागरिक धर्म को थोपना गांधी के लिए एक पाखंड भी था और असंभव भी. ब्रिटिश साम्राज्य के उत्तराधिकारी देशों में लोक आस्था में लाए  गए परिवर्तन ने धर्म के प्रति उपयोगितावादी रवैया अपनाने के खतरों को उजागर किया. आज विचारधारा धर्म पर हावी हो गई है, और हममें से कुछ लोगों के लिए यह राजनीतिक जंग लड़ने का हथियार बन गया है. धर्म के सबसे बड़े दुश्मन उसके अनुचरों में ही पाए जाते हैं.

फरवरी 1940 में बंगाल में एक सभा में गांधी के खिलाफ ‘गांधीवाद मुर्दाबाद’ के नारे ज़ोर-ज़ोर से लगाए जा रहे थे. इस पर गांधी ने कहा : “यह नारा सुनकर मुझे बहुत अच्छा लग रहा है. ‘वाद’ कोई भी हो उसे खत्म ही कर देना चाहिए. यह बेमानी है. असली चीज है अहिंसा. यह अमर है. यह कायम रहे, मेरे लिए यही काफी है. मैं इंतजार करूंगा कि गांधीवाद कितनी जल्दी नष्ट होता है… मैंने कभी कोई पंथ स्थापित करने का सपना नहीं देखा है. अगर मेरे मरने के बाद मेरे नाम से कोई पंथ स्थापित किया जाता है तो मेरी आत्मा दुखी होगी.”  गांधी ने कभी किसी ऐसे काल्पनिक भविष्य का कोई सिद्धांत नहीं सुझाया जिसकी खातिर वर्तमान में बुरे काम करने की जरूरत पड़े. वर्तमान और भविष्य आपस में जुड़े हैं, और वर्तमान में किए गए सदकर्मों से ही दुनिया को बेहतर बनाया जा सकता है. समय की इस अवधारणा में नश्वरता पर नहीं बल्कि जो मौजूद है उस पर ज़ोर दिया गया है.

गांधी की धर्मशास्त्रीय रचनात्मकता, और बुराई की समस्या  

हम किस तरह जिएं? शुभ क्या है? पाप क्या है? इस तरह के सवाल सभी समुदायों में उठते हैं, बेशक उनके जवाब अलग-अलग मिलते हैं. बुराई के बारे में सिद्धांत उतने ही विविध हैं जितने विश्व की उत्पत्ति के सिद्धांत विविध हैं. परमात्मा की अच्छाई में आस्था रखते हुए बुराई की जो व्याख्या की जाती है उसे ‘थिओडिसी’ कहा जाता है. (‘थिओडिसी’ का अर्थ है : जो बुराई के अस्तित्व के बावजूद ईश्वर की अच्छाई और उसके सर्वशक्तिमान रूप का तर्क प्रस्तुत करना). कुछ विद्वान सभी धर्मों को विफल ‘थिओडिसी ’बताते हैं. हेगेल का दावा था कि उनका दर्शन एक ‘थिओडिसी’ है, जिसे मानव इतिहास में  ‘ईश्वर के तरीकों का औचित्य’ कहा जा सकता है. लेकिन पिछली सदी का जो इतिहास रहा है, और आज तक जो नरसंहार हो रहे हैं उनके कारण हेगेल की ‘थिओडाइसी’ को स्वीकार करना मुश्किल लगता है. मैक्स वेबर ‘कर्म’ के सिद्धांत को सबसे तर्कसंगत ‘थिओडाइसी’ मानते थे. यह सिद्धांत पूर्वजन्म के हमारे कर्मों को हमारे दुर्भाग्य का कारण बताता है. यह सब ‘अनादि काल’ से चल रहा है. सृष्टि में प्रतिशोध वाले न्याय को जगह दे दी गई.

मेरे विचार में इस समस्या का कोई समाधान नहीं है. मनुष्य जीवन और जगत को समझने की कोशिश करता है. लेकिन बुराई अबूझ है, यह व्याख्याओं पर हावी हो जाती है; मनुष्य के अत्याचार और बेमानी कष्ट की व्याख्या की हमारी चाहत को कोई ‘थिओडाइसी’ संतुष्ट नहीं कर सकती. ईश्वर की शक्ति भी उतनी ही अगम्य है : अनंत अंतरिक्ष और शाश्वत काल हमारी समझ से परे है. ईश्वर हमारे उदगम और हमारी प्रकृतियों की स्थायी रहस्यमयता का नाम है. कोई दूरबीन इस रहस्य का खुलासा नहीं कर सकती.

इस विषय पर लेस्ज़ेक कोलाकोव्स्की (1927-2009) ने लिखा है : “जो पवित्र है उसे अमान्य करना हमारी अपनी सीमाओं को खारिज करना है. यह बुराई के विचार को भी खारिज करना है, क्योंकि जो पवित्र है वह खुद को पाप, अधूरेपन, और बुराई में से उदघाटित करता है; और इसके बदले में बुराई को केवल पवित्र में से पहचाना जा सकता है. यह कहना कि बुराई पूरी तरह से संयोग का परिणाम है, यह कहने के बराबर है कि बुराई का कोई अस्तित्व ही नहीं है और इसलिए हमें किसी नैतिक क्षमता की जरूरत नहीं, जो कि पहले से मौजूद है; जो हम पर थोपा जा चुका है, चाहे हम उसे चाहते हों या नहीं. अगर हम यह मानते हैं कि समाज को सुधारा जा सकता है, तब उससे यह निष्कर्ष निकलता है कि ऐसे लोग हमेशा मौजूद होंगे जो प्रगति के हर कदम की कीमत के बारे में सोचते होंगे. कोलाकोव्स्की का निष्कर्ष है : ‘पवित्रता की व्यवस्था बुराई के प्रति संवेदनशीलता भी है’. यह ईश्वर में आस्था से ज्यादा, कथनी और करनी में आत्म-संयम की सीमा निश्चित करने का मामला है. (‘मॉडर्निटी ऑन एंडलेस ट्रायल’, अध्याय 6).  

अगर कोई नैतिकता नहीं है, तो कोई कानून भी नहीं चलेगा क्योंकि तब सब कुछ की इजाजत होगी. जब सब कुछ की इजाजत होगी तब इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा कि हम क्या कह रहे हैं और क्या कर रहे हैं. बोलने और चुप रहने में कोई अंतर नहीं होगा. गुलामी ही आजादी मानी जाएगी, अज्ञानता को ही ज्ञान माना जाएगा,   कुतर्क को ही विवेक माना जाएगा.

हमें अच्छाई और साहस के एक पनाहगाह की जरूरत है. गांधी के मामले में, मैं कहूंगा कि उनकी स्थितप्रज्ञता ही उनका निजी अभयारण्य था; और सामाजिक आचरण के मामले में स्वराज  उनका अभयारण्य था, जिसे हासिल करने के लिए इच्छाशक्ति और भावनाओं पर नियंत्रण की जरूरत होती है. यह नजरिया इस मान्यता पर आधारित है कि जबकि ईश्वर, सत्य, और अच्छाई समान चीजें हैं; मिथ्या सत्य का भंग होना है, और बुराई अच्छाई का भंग होना है. इसलिए अच्छाई का तो अपना स्वतंत्र अस्तित्व है, बुराई का नहीं है. जैसे ब्रह्म काल में स्थित नहीं है लेकिन काल इसमें स्थित है, इसी तरह प्रकाश अपने में अंधकार को समाए रहता है. इसे अनुभव करने के लिए हमें अपनी दृष्टि और अंतर्दृष्टि का उपयोग करना पड़ता है.

जिसे हम पवित्र कहते हैं वह हमारी सीमाओं का एहसास और स्वीकार है; और गांधी अच्छाई और बुराई के इसी बोध से जीवन भर जूझते रहे.

गांधी ने इस दुविधा का समाधान रोज-रोज के रचनात्मक कार्यक्रम पर ज़ोर देकर और उपनिवेशवाद तथा हिंसा के कारण हो रहे अन्याय का मुक़ाबला करके करने की कोशिश की. वे जानते थे कि हिंसा का अपना आवेग होता है जो हमारे आत्म-संयम पर हावी हो सकता है. उन्होंने सत्याग्रहियों के आत्मानुशासन तथा भाईचारे का वैकल्पिक आवेग विकसित करने की कोशिश की. भारत की आज़ादी के आंदोलन को हिंसा के जहर से मुक्त रखने का उन्होंने दृढ़ संकल्प कर रखा था. और उन्होंने यह काम विश्व इतिहास के सबसे हिंसक दशकों में किया.

सत्य, न्याय, और अहिंसा

वैज्ञानिकों, धर्मशास्त्रियों, और भाषाविदों के लिए सत्य का अलग-अलग अर्थ हो सकता है, लेकिन कोई भी इसे खारिज नहीं कर सकता— वह भी नहीं, जो इसे एक भ्रम बताकर खारिज करता है. भारतीय ज्ञान परंपरा में, धर्म में सत्य, कर्तव्य, और सदगुण शामिल हैं. इसलिए, गांधी के लिए सत्य का एक नैतिक मकसद था जिसके साथ व्यावहारिक विवेक जुड़ा था. रंगभेद, अनुचित कानून, और औपनिवेशिक वर्चस्व सामाजिक व्यवहार में आईं खामियां थीं. इस विचार का सबसे सरल उदाहरण यह है कि उन्होंने श्वेतों के लिए आरक्षित रेल डिब्बे में अपने ऊपर ‘अश्वेत आदमी’ का ठप्पा लगाए जाने का विरोध किया था. हमारी साझा मानवता का इनकार वैसा ही एक झूठ था जैसा कि यह दावा था कि हममें से कुछ लोग दूसरों से श्रेष्ठ हैं. अस्पृश्यता के खिलाफ संघर्ष मानव एकता के लिए किया गया संघर्ष था, एक सत्याग्रह था.

अहिंसा को केंद्रीय महत्व देने और हिंसा का साहस से मुक़ाबला करने का आग्रह केवल राजनीतिक चाल नहीं थी. इसमें नैतिकता के स्पष्ट दर्शन के बीज समाहित हैं. और यह मध्यवर्ती क्षेत्र में संवाद का आधार है; सिविल सोसाइटी का आधारस्तंभ है, जो ब्रह्मांड की स्वाभाविक अच्छाई और दैवी सत्ता की अच्छाई के बीच के अंतर को पाट सकता है. हमारा नियंत्रण अपने लक्ष्यों से ज्यादा, अपनी तात्कालिक क्रियाओं पर होता है. अशुद्ध साधन, जिसका सबसे बुरा रूप दूसरों के साथ हिंसा करना है, हमारे लक्ष्यों को भ्रष्ट कर सकते हैं. ऐसा लगता है कि गांधी सभी धार्मिक समुदायों के अंदर विचारों की समानता देखते थे (जो कि खिलाफत आंदोलन को उनके समर्थन से जाहिर है); लेकिन अंतरात्मा की स्वायत्तता में उनका दृढ़ विश्वास था.

जालियांवाला बाग नरसंहार की जांच करने वाले हंटर कमीशन में उन्होंने जो गवाही दी उससे जाहिर होता है कि लोकप्रिय प्रतिरोध को मतभेदों की वजह से बिखरने से बचाने के साधन के रूप में अहिंसा कितना महत्वपूर्ण है. उनकी गवाही यह भी दर्शाती है कि वे न्यायपालिका के नियंत्रण से मुक्त कार्यपालिका के बिलकुल विरोध में थे. मैं अपने देश के वकीलों तथा जजों को सलाह दूंगा कि वे उनकी इस गवाही को सावधानी के साथ पढ़ें. (सीडब्लूएमजी खंड 16, पेज 408, जनवरी 1920).

अहिंसा कोई मतवाद नहीं था, बल्कि वह हमारी सीमाओं की याद दिलाती थी. ईश्वर या उसके विधान को इन सीमाओं का स्रोत कहा जा सकता है, लेकिन यह एक रहस्य ही है. महत्वपूर्ण यह है कि यह कुछ चुनिंदा लोगों के लिए नहीं बल्कि हम सबके लिए लागू होती है : यह सबक सितंबर 1947 में कलकत्ता के वे दंगाई देते हैं, जो उपवास पर बैठे महात्मा के पास आए और अपने हथियार उनके चरणों में डाल गए. हरेक आत्मा में अच्छाई और बुराई के बीच चलने वाली लड़ाई का इससे बेहतर और कोई सबूत नहीं हो सकता है.

मौलिक वैधता के रूप में हिंसा एक समस्या

मेकियावली की किताब ‘डिस्कोर्सेज़’ में ये सिफ़ारिशें की गई हैं : “अगर कोई यह चाहता है कि कोई पंथ या गणतंत्र दीर्घायु हो, तो उसे बार-बार उसके प्रारंभ की ओर लौटाना चाहिए”. उनके विचार से, सभी राज्यतंत्र आतंक पर आधारित होते हैं. प्राचीन सद्गुणों को वापस लाने के लिए उस भय को पुनर्स्थापित करना पड़ेगा जिसने प्रारंभ में लोगों को अच्छा बनाया था. यह सच था, तो उनकी मासूमियत इसकी वजह नहीं थी बल्कि वजह यह थी कि वे भयग्रस्त थे. सबक साफ और क्रूर है : प्रारंभ में प्रेम नहीं, आतंक का राज था. मेकियावली का नया सबक इस कथित अंतर्दृष्टि पर आधारित था, जो आदिम मानव की स्वाभाविक वृत्ति (‘स्टेट ऑफ नेचर’) के बारे में हॉब्स के सिद्धांत का पूर्वानुमान लगाती है.

राज्यसत्ताओं के विकास को वैधता प्रदान करने वाले अव्यक्त तत्व के मूल में हिंसा स्थित है? अधिकतर राष्ट्र-राज्यों का विकास गृहयुद्ध की प्रक्रिया के जरिए हुआ; संविधानों के निर्माण के पीछे प्रायः अत्यधिक हिंसा का हाथ रहा है. ब्रिटिश साम्राज्य से उत्तराधिकार में सत्ता हासिल करने वाली राज्यसत्ताओं में राजनीतिक हत्याओं का सिलसिला इस बात की ओर इशारा करता है कि समावेशी और बहिष्कारी विचारधाराएं कितनी दमदार रही हैं. व्यापक हिंसा के इतिहास से संबंधित एक शोध में भारत विभाजन पर भी एक प्रविष्टि है. इस विश्लेषण में निम्नलिखित आकलन किया गया है :

“हिंसा केवल संयोग से नहीं घटी थी… बल्कि वह उस घटना के मूल में ही मौजूद थी. न ही यह विभाजन की वजह से हुई थी, बल्कि वह विभाजन की परिस्थितियां तैयार करने की प्रमुख चाल थी. हिंसा वह नैतिक उपक्रम था जिसके जरिए पहचान के विभाजन-पूर्व स्थानीय चरित्र, और उपनिवेशवादी दौर के बाद की उसकी भौगोलिक तथा राष्ट्रीय परिभाषा के बीच के तनाव का समाधान किया गया. हिंसा समुदाय और उसकी नयी राष्ट्रीय जमीन के बीच के सूत्र के रूप में सक्रिय थी. इसने ही उसे संगठित एवं जनसंहार वाला आयाम दे दिया क्योंकि इसका मकसद सामाजिक क्षेत्र पर नियंत्रण हासिल करना था ताकि इन इलाकों को दूसरे धार्मिक समुदायों की मौजूदगी से मुक्त कराया जा सके.” (लायनेल बैक्सस).  

हमारे उप-महादेश का इतिहास कहता है कि मूल-सूत्री हिंसा ने अपनी जगह पक्की कर ली है; हम निरंतर युद्धरत हैं. यह पूरी दुनिया का भी सच है. किसी राज्यसत्ता का संविधान उसकी वैधता को औपचारिक रूप से प्रमाणित करता है, लेकिन अनौपचारिक रूप से इसे कानून के नाम पर नहीं बल्कि मूल-सूत्री हिंसा के जरिए हासिल करने की कोशिश की जाती है. यही वजह है कि हमारी सरकारें चाहती हैं कि हम मूल विभीषिकाओं को याद रखें. इसीलिए विभीषिकाओं को कला के जरिए, या सड़कों पर दोहराने की कोशिश की जाती है. अब हम समझ सकते हैं कि ‘हिन्द स्वराज’ में गांधी ने जो यह कहा है कि ‘जिस चीज को हम भय दिखाकर हासिल करते हैं वह वह हमारे पास तभी तक रहती है जब तक वह भय कायम रहता है’, उसका सच क्या है.  

स्थितप्रज्ञ

संघर्षों में उलझी अपनी दुनिया को गांधी ने एक कर्मयोगी और सत्याग्रही के रूप में देखा. उन्होंने उपनिवेशवादी सत्ता और उसके उपनिवेश, दोनों के मस्तिष्क को ‘अंदर से’ प्रभावित करने की कोशिश की. इस दृष्टिकोण में ‘दिलों की एकता’ का उनका विचार निहित था, जो कि राजनीतिक या धार्मिक मतवादों से कहीं बड़ा और उनसे परे था. लेकिन दूसरे व्यक्ति के दिल में झांकने के लिए हममें दूसरों की भावनाओं को समझने की क्षमता होनी चाहिए, गांधी ज़ोर देते थे कि यह क्षमता मूलतः मानवीय है.  

गांधी के लिए, विवेक का अपना वैध स्थान है, लेकिन यह वह विवेक है जो अपनी सीमाओं को पहचानता है. इसलिए वे धार्मिक ग्रंथों की व्याख्या करने की मानवीय योग्यता पर ज़ोर देते थे. अगर इसे स्वीकार कर लिया गया, तो हमारी ज़िम्मेदारी बहुत बढ़ जाती है— इस तथ्य के मद्देनजर कि ऐसे लोग मौजूद हैं जो यह दावा करते हैं कि वे ईश्वर की मर्जी को लागू करवा रहे हैं. ऐसे दावों की जांच नहीं की जा सकती इसलिए उन पर सवाल उठाना हमारी ज़िम्मेदारी बनती है.    

शाश्वत काल और अनंत आकाश के रहस्यों का हमारे पास कोई जवाब नहीं है इसलिए हम इस रहस्य को ईश्वर या ‘बिग बैंग’ नाम दे देते हैं. इससे कोई समस्या हल नहीं होती. ईश्वर क्या है? वह कोई व्यक्ति है, या कोई सिद्धांत है? इस सवाल का उन्होंने बहुत स्पष्ट जवाब लिखा है : दैवी शक्ति को किसी भाषा में व्यक्त नहीं किया जा सकता, लेकिन –

‘मेरी दृष्टि में, उसे राम कहें या रहमान या ओर्मुज़्द या भगवान या कृष्ण, वह ऐसी सर्वोच्च शक्ति है जिसे एक नाम देने की कोशिश में मनुष्य अभी भी जुटा है. मनुष्य में कमी तो है मगर वह संपूर्णता हासिल करने की कोशिश करता रहता है और इस कोशिश में विचारों की लहरों पर उतराता रहता है… इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कोई ईश्वर को एक व्यक्ति के रूप में पूजता है, या कोई सर्वशक्तिमान के रूप में. दोनों अपने-अपने तरीके से सही हैं. वास्तव में सही क्या है यह कोई नहीं जानता और न कोई कभी जान पाएगा. आदर्श अगर आदर्श है, तो उसे हमेशा पहुंच से दूर रहना चाहिए. ईश्वर जबकि जीवनी शक्ति है, अंतर्निहित है और ज्ञानातीत है, बाकी सभी शक्तियां स्थिर हैं.’ (सीडब्लूएमजी, खंड 85 पेज 136).   

अंतर्निहित’ शब्द के प्रयोग पर गौर कीजिए. उसी पत्र में उन्होंने इसके बारे में यह लिखा है : ‘मनुष्य जब प्रार्थना करता है तब अपने भीतर बैठे सर्वशक्तिमान की पूजा कर रहा होता है. जिसे यह मालूम है, उसी की प्रार्थना सच्ची होती है. जिसे यह नहीं मालूम है, उसे प्रार्थना करने की जरूरत नहीं है’. दैवी प्रेरणा हरेक आत्मा के अंदर है, उसके बाहर नहीं. गांधी मानते थे कि अच्छाई की प्रेरणा हरेक मनुष्य के भीतर होती है; यही एकमात्र साधन है जिससे भारतीय लोग एक सुंदर नागरिक समाज बना सकते हैं. अच्छाई, बुराई, सच, झूठ के सवाल मानव जीवन के केंद्रीय सवाल हैं. सभी धार्मिक परंपराएं इन सवालों से जूझ चुकी हैं, और सभी संस्कृतियों के संतों ने हमें इन सवालों के जवाब बता दिए हैं. काल और स्थान के इतने बड़े अंतर के बावजूद अगर हम इन्हें समझ सकते हैं तो इससे यही संकेत मिलता है कि पारस्परिक सम्मान के आधार पर एक नैतिक समुदाय का निर्माण संभव है. बस इसके लिए प्रयास करने की जरूरत है. नवंबर 1947 में, एक प्रार्थना सभा में उन्होंने कहा –

 “कोई जब कहीं अपराध करता है तब मुझे ऐसा लगता है कि मैं ही दोषी हूं. आपको भी ऐसा लगना चाहिए. अगर मैं कोई अपराध करता हूं तो आपको भी यही सोचना चाहिए कि इसके लिए आप भी दोषी हैं. हम सब एक-दूसरे से सागर की बूंदों की तरह हिलमिल जाएं. समुद्र की बूंदें अगर अलग-अलग रहेंगी तो सूख जाएंगी. जब वे समुद्र से मिल जाएंगी तो उनके विशाल विस्तार पर बड़े-बड़े जहाज चल पाएंगे. समुद्र के साथ जैसा होता है वैसा ही हमारे साथ हो. आखिर हम भी मानव समुद्र हैं !” (सीडब्लूएमजी, खंड 90. पेज 133).   

इसके साथ हम मतवाद की सीमा से निकलकर आत्मा के आकाश में प्रवेश करते हैं. यह आकाश दर्शनशास्त्र और धर्मशास्त्र, सिद्धांत और जीवन, साधारण और असाधारण चीजों के बीच का है. मतवादी परंपराओं में भी, दरवाजे के बीच के जिस दरार से नास्तिक को मत परिवर्तन के लिए आमंत्रित किया जाता है वह दोनों के बीच के सूत्र की असलियत को उजागर करता है. क्यों? क्योंकि आस्तिक इसके लिए तब तक आमंत्रण नहीं दे सकता है जब तक वह मत परिवर्तन की संभावना में विश्वास नहीं करता. आमंत्रण, और उस पर मनन के बीच के समय में क्या होता है? किसी को हम किसी विचारधारा या आस्था में ढालना क्यों चाहते हैं? आस्था की एकरूपता या समानता स्थापित करने से क्या हासिल होता है? दूसरों की आलोचना करने से पहले हम खुद को क्यों नहीं सुधारते हैं? आखिर हम चाहते क्या हैं? अपना प्रभुत्व या मित्रता?

गांधी जिसे ‘दिल का मिलना’ कहते थे, वह कोई सिद्धांत नहीं बल्कि दोस्तान संवाद की वास्तविकता है. अगर उस वास्तविकता को स्थिरता प्रदान की जाए तो उससे समुद्री वर्तुल जैसा बनेगा जो, उनके शब्दों में, पृथ्वी की सीमा तक फैल जाएगा. इसके बिना यह संसार नष्ट हो जाएगा.

यही गांधी की स्थितप्रज्ञता, उनकी शांतचित्तता थी.

गांधी का समुदाय

1931 में, हवलदार चंदर सिंह गढ़वाली ने पेशावर में खुदाई खिदमतगारों पर गोली चलाने से मना कर दिया, उन्होंने अपने अंग्रेज़ अफसरों से कह दिया कि भारत के लोगों को गोली मारना भारतीय सेना का काम नहीं है. इस हुक्मउदूली के लिए गढ़वाली को 11 साल जेल की सजा भुगतनी पड़ी.

1937 में, जर्मन व्यवसायी जॉन रेब ने हजारों चीनी लोगों को नांकिंग में जापानी सेना द्वारा नरसंहार से बचाया.

1940 में, गुलाम फ्रांस में तैनात पुर्तगाली राजनयिक एरिस्टाइड्स डि साउसा मेंडिस ने नाजियों से बचने के लिए भाग रहे हजारों यहूदियों को सरकारी आदेश का उल्लंघन करके वीसा जारी किए. सालाजार सरकार ने उन्हें नौकरी से बरखास्त कर दिया और पेंशन से वंचित कर दिया.

1943 में, नाजियों के युद्ध अपराधों का विरोध करने वाली 21 वर्षीया छात्रा सोफी स्कोल, उसके भाई और व्हाइट रोज़ ग्रुप के साथियों को गेस्टापो ने मौत के घाट उतार दिया.

1942 में, नवानगर के महाराजा दिग्विजयसिंह रंजीतसिंहजी ने विश्वयुद्ध के दौरान एक हजार अनाथ पोलिश बच्चों को गोद लिया और एक पिता की तरह उनकी परवरिश की.

1947 में, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के कॉमरेड गेहल सिंह ने हजारों पंजाबी मुसलमानों को सीमा पार करके पाकिस्तान जाने में मदद करते हुए अपनी जान दे दी.

मानवता के बोल, साहस के बोल

क्या है जो ऐसे लोगों को अजनबियों की ओर मदद का हाथ बढ़ाने के लिए प्रेरित करता है? इस सवाल का हमारे पास कोई जवाब नहीं है. हम केवल उनके बोलों को दोहराकर याद कर सकते हैं.

1937 में, जर्मन पादरी पास्टर नेमोल्लर ने अपने गिरजाघर में खड़े होकर घोषणा की थी : “ईश्वर जब हमें बोलने का निर्देश दे रहे हैं तब हम किसी मनुष्य के कहने पर अब चुप रहने को तैयार नहीं हैं.” इन शब्दों के कारण उन्हें नजरबंदी शिविर में भेज दिया गया.  

पोलैंड की सामाजिक कार्यकर्ता इरीन सेंडलर से जब पूछा गया कि गेस्टापो द्वारा यातानाएं दिए जाने के बाद भी उन्होंने 1943 में वारसा की यहूदी बस्ती से सैकड़ों बच्चों को क्यों मुक्त कराया, तो उनका जवाब बस यही था कि “मैं और कुछ कर नहीं सकती थी”.

सर्बिया के प्रोटेस्टेंट पादरी टिबोर वार्गा ने 2015 में कई सीरियाई शरणार्थियों की देखभाल की. उनसे जब अपने गिरजाघर के सामने फोटो खिंचवाने का अनुरोध किया गया तो उन्होंने शरणार्थियों के ठिकाने की ओर इशारा करके कहा कि “मेरा गिरजाघर यही है”.

उसी दौरान धर्मनिष्ठ यूनानी पादरी फादर स्ट्राटिस दिमाउ ने शरणार्थियों और प्रवासियों की सहायता के लिए एक परमार्थ संस्था की स्थापना की. उनका कहना था कि यह उनका फर्ज था, क्योंकि “प्रेम का कोई धर्म नहीं होता”.

पाकिस्तान के प्रख्यात सामाजिक कार्यकर्ता अब्दुल सत्तार ईधी (1928-2016) जीवन भर हिंसा पीड़ितों की मदद करते रहे. उनके आखिरी अल्फ़ाज़ थे—  “मेरे मुल्क के गरीबों का ख्याल रखना”.

2019 में, सिसली के मछुआरों कार्लो और गैस्पर ग्यार्राटनों ने एक डूबती नौका में सवर 50 लिबियाई शरणार्थियों की जान बचाने के लिए जेल की सजा पाने का जोखिम तक उठाया. उनका भी कहना था कि यह उनका फर्ज़ था, क्योंकि “कोई मनुष्य अपनी आंखें नहीं फेर सकता”.

1968 में, डेनियल और फिलिप बेरिगन (दूसरे विश्वयुद्ध में शौर्य के लिए अलंकृत सैनिक) पहले कैथलिक पादरी थे जिन्हें वियतनाम युद्ध का विरोध करने के लिए जेल की सज़ा दी गई थी. इन दोनों ने एक सैनिक भर्ती केंद्र में घुसकर सारे कागजात जला दिए थे. उन्होंने यह बयान दिया था : “अपने देश के अपराधों पर चुप्पी साधने और कायरता का प्रदर्शन करने वाले अमेरिकी कैथलिक चर्च और दूसरी ईसाई संस्थाओं तथा यहूदी उपासना गृहों से हम सवाल पूछते हैं. मेरे प्रिय दोस्तो! व्यवस्था भंग करने, बच्चों के बदले कागजात जलाने, शार्नेल हाउस के सामने तैनात चपरासियों को नाराज करने के लिए हमें माफ करना. ईश्वर हमारी मदद करें, हम और कुछ कर नहीं सकते थे. हम दिल से बीमार हैं, इसलिए हमारा हृदय उस देश के बारे में सोचता रहता है जहां बच्चों को जलाया जा रहा है”.

ये सभी नेक आत्माएं समुद्री वर्तुल की जीवंत मिसालें हैं. यहां न तो धर्म का कोई काम हौ और न राष्ट्रीयता का. उन्हें बहुत याद नहीं किया जाता , न ही उनकी कहानियां इतिहास के पाठ में पढ़ाई जाती हैं. और इनकी संख्या हजारों में है जिन्हें हम जानते नहीं.

गांधी इतिहास को विध्वंस की कहानी या लड़ाई का दस्तावेज़ कहते थे. उन्होंने कहा, इतिहास में प्रेम और आत्मा की ताकत की तलाश करने का कोई मतलब नहीं है, क्योंकि “आप टिन की खदान में चांदी मिलने की उम्मीद नहीं कर सकते.” उन्होंने ‘इतिहास के नियमों’ या हिंसक संघर्ष की अनिवार्यता को कबूल करने से मना कर दिया था. 1926 में एक संवाददाता के सवाल के जवाब में उन्होंने लिखा : “हमें अगर तरक्की करनी है तो हमें इतिहास को दोहराना नहीं बल्कि नया इतिहास बनाना होगा… अगर हम कर्म की दुनिया में नयी खोज और नये आविष्कार कर सकते हैं तो अध्यात्म के दायरे में अपना दिवालियापन क्यों दिखाएं?” (सीडब्लूएमजी; खंड 30, पेज 415).      

गांधी ने इतिहास की लहरों के खिलाफ बगावत कर दी थी. उन्होंने उनका सीधा मुक़ाबला किया. ऊपर दिए गए उदाहरण अगर अजनबियों से प्रेम और दोस्ती करने की मनुष्य की क्षमता को उजागर नहीं करते तो और क्या करते हैं? क्या यह क्षमता अनंत युद्ध से पार पाने का जरूरी साधन नहीं बन सकती?

समुद्री वर्तुल

विस्तार करता वृत मानव संस्कृति का पुराना प्रतीक रहा है. वृत अनंत का सही प्रतिनिधित्व करता है, जिसका न कोई आदि है और न अंत. बाहर की ओर विस्तार में यह सबसे करीब वाले से शुरू करता है और तब तक विस्तार करता है जब तक मानवता में समाहित नहीं हो जाता. यह साम्राज्यशाही प्रभुत्व का नहीं बल्कि एकता का सपना देखता है. गांधी ने इसे इस रूप में देखा था—

 “असंख्य गांवों से बनी इस संरचना में निरंतर चौड़े होते और कभी किसी पर आरोहण न करते वृत होंगे. जीवन पिरामिड के रूप में नहीं होगा जिसके शिखर को आधार से ताकत मिलती है बल्कि यह एक समुद्री वर्तुल के समान होगा जिसका केंद्र ऐसा व्यक्ति होगा जो गांव के लिए जान देने को हमेशा तैयार रहेगा. और गांव तमाम गांवों के वृत के लिए जान देने को तैयार रहेगा, जब तक कि अंततः यह ऐसे व्यक्तियों से बना एक संपूर्ण जीवन बन जाएगा, जो अहंकारी नहीं बल्कि हमेशा विनम्र रहेंगे, और जिस समुद्री वर्तुल के वे अभिन्न हिस्से हैं उसकी भव्यता का साझा करेंगे. इसलिए, सबसे बाहरी वृत अंदर के वृत को कुचलने के लिए अपनी ताकत का प्रयोग नहीं करेगा बल्कि अंदर के सभी वृतों को ताकत देगा और उनसे अपनी ताकत हासिल करेगा. मेरा यह कहकर मखौल उड़ाया जा सकता है कि यह सब खामखयाली है, इसलिए इस पर कुछ सोचने की भी जरूरत नहीं है. बावजूद इसके कि ‘यूक्लिड प्वाइंट’ बनाना मनुष्य की क्षमता में नहीं है, वह अगर एक स्थायी मूल्य है तो मेरी जो कल्पना है उसका भी मानव जाति के लिए अपना एक मूल्य है. भारत इस कल्पना को सच करने के लिए जिए, हालांकि उसे उसकी संपूर्णता में कभी साकार नहीं किया जा सकता है.” (सीडब्लूएमजी; खंड 85, पेज 33, 28 जुलाई 1946).   

गांधी का ज्ञान पारिस्थितिकी से लेकर निरंतर जारी युद्धों और संघर्षों तक, दुनिया की सभी समस्याओं के समाधान का वैकल्पिक तरीका सुझाता है. वे एक देशभक्त थे मगर संकीर्ण अर्थों में राष्ट्रवादी नहीं थे. यह हमें उनकी इस ख़्वाहिश से पता चलता है कि “मेरा प्रदेश भारत की सीमा जितना सहव्यापी हो ताकि अंततः यह पृथ्वी की सीमा तक फैल जाए. अन्यथा यह नष्ट हो जाएगा.” समुद्री वर्तुल वाले विचार का आविष्कार उन्होंने नहीं किया, वह पहले से मौजूद था. गांधी ने बस उस पर फिर से नजर डालने की याद हमें दिलाई.

भारत में ब्रिटिश राज के आखिरी दिनों में राजनीतिक समूहों ने आपसी तालमेल के उपलब्ध अवसरों को गंवा दिया. गांधी ने नफरत और विध्वंस के बीच प्रेम और आपसी सम्मान की बात की. जबकि उम्मीद बाकी थी, तब भी कुछ लोग निराश हो रहे थे. गांधी ने निराशा के बीच लोगों में आशा जगाई; सबसे बुरे दौर में उन्होंने लोगों की बेहतर वृत्तियों को जगाने की कोशिश की. उन्होंने भारत के साधारण लोगों को गरिमा प्रदान नहीं की, बल्कि उन्हें उनकी गरिमा की याद दिलाई. उन्होंने हममें दोस्ती और सांप्रदायिक समरसता की क्षमता नहीं पैदा की, बल्कि उसकी याद दिलाई. यही जनवरी 1948 में उनके अंतिम उपवास का संदेश था. यह संदेश असाधारण अच्छाई, शक्ति और साहस वाले व्यक्ति का था.      

करीब 3000 साल पहले चिंतक हेराक्लिटस ने आत्मा के बारे में कहा था : “आपने चाहे सभी रास्तों को पार कर लिया हो, आप आत्मा की अंतिम सीमा का पता नहीं लगा सकते. वह इतनी अथाह है.” गांधी की आत्मा सचमुच अथाह है. प्लेटो ने हमारे प्राकृतिक ज्ञान और अज्ञान पर प्रकाश डालने के लिए गुफा और प्रकाश की जो रूपक कथा प्रस्तुत की जिसमें कथा का पात्र (जो ज्ञान की खोज में निकला यात्री है) ज्ञान की खोज में रोशनी की ओर जाता है और फिर अपने साथियों के पास ही लौट कर अपने अनुभव बताता है. गांधी भी ठीक यही करते हैं और इसे अपनी अंतर्यात्रा बताते हैं. 1947 में कलकत्ता में गांधी ने जो उपवास किया उसने हिंसक अपराध करने वालों की अंतरात्मा को भी झकझोर देने की उनकी क्षमता सिद्ध कर दी. इसे ब्रिटिश साम्राज्य के सबसे प्रखर विरोधी के समर्थन में बांह पर काली पट्टी बांधने वाले अंग्रेज़ और एंग्लो-इंडियन पुलिसवालों ने भी सिद्ध किया. जब हिंसा थमने लगी तो उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि यह तो ईश्वर का काम है. जब श्रद्धालु महिलाओं ने धन्यवाद स्वरूप पूजा आयोजित करना चाहा तो उन्होंने कहा कि वे पूजा सामग्री बेच दें और उससे मिले पैसे गरीबों में बांट दें. महिलाओं ने उनसे कोई संदेश देने का आग्रह किया तो वे बोले : “मेरा जीवन ही मेरा संदेश है”.

गांधी के बारे में अल्बर्ट आइंस्टीन की यह उक्ति तो जगप्रसिद्ध है ही कि ‘आने वाली पीढ़ियां शायद ही यकीन करेंगी कि हाड़-मांस का ऐसा कोई शख्स कभी इस धरती पर हुआ भी था’. कम ही लोगों को मालूम होगा कि 2000 में बीबीसी न्यूज़ वेबसाइट ने जो वैश्विक सर्वे करवाया था उसमें उसके पाठकों ने महात्मा गांधी को पिछले 1000 वर्षों की सबसे महान शख्सियत घोषित किया था.

अक्तूबर 1947 में, आकाशवाणी ने उनके जन्मदिन पर एक विशेष प्रसारण किया था और उनसे इसे सुनने का आग्रह किया था लेकिन उन्होंने मना कर दिया. उन्हें रेडियो की जगह ‘रेंतियो’ (चरखा) पसंद था. चरखे की ध्वनि उन्हें ज्यादा मधुर लगती थी. इस ध्वनि में उन्हें “मानवता का उदास संगीत” सुनाई देता था. चरखा लकड़ी का एक छोटा-सा चक्र है लेकिन उनकी हत्या की खबर पर पूरी दुनिया में शोक की जो लहर उभरी उसने उनके ‘रेंतियो’ की ध्वनि की गूंज को कई गुना बढ़ा दिया.  

जाहिर है, गांधी के समुद्री वर्तुल ने पूरी दुनिया को अपने भीतर समो लिया था.

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